क्या सत्ता जाने का डर सता रहा है गहलोत को —ओम माथुर

 क्या सत्ता जाने का डर सता रहा है गहलोत को —ओम माथुर


छोटा अखबार।

—क्या मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को यह लगने लगा है कि राजस्थान में उनका मिशन रिपीट  

     का सपना नाकाम होने जा रहा है?

 —क्या गहलोत को यह आशंका है कि वह भले ही 156 सीटें लाने का दावा कर रहे हो, लेकिन 

     मामला 56 के आसपास सिमटकर ना रह जाए? 

—क्या मुख्यमंत्री को यह लगने लगा है कि राजस्थान में कांग्रेस विधायकों और मंत्रियों की छवि 

     उनके इलाकों में इतनी खराब हो गई है कि उनमें से अधिकांश के जीतने के आसार नहीं 

     हैं? 

—क्या गहलोत को लगने लगा है कि राजस्थान में ही नहीं, दिल्ली से भी कांग्रेस के बड़े उन्हें 

    नाकाम करने के लिए उनके खिलाफ साजिश रच रहे है?

—क्या मुख्यमंत्री को ये लगने लगा है  कि उनकी ढेर सारी मुफ्त योजनाओं पर राज्य में 

    भ्रष्टाचार,बलात्कार,महिला सुरक्षा का मुद्दा चुनावों में भारी पड़ने वाला है? 

शुक्रवार को राजस्थान में हुई कांग्रेस की पॉलिटिक्स अफेयर्स कमेटी की बैठक में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भाजपा को बैठे बिठाये कांग्रेस पर सवाल उठाने का मौका दे दिया है। शुक्रवार की घटना में गहलोत के उपर  ओम प्रकाश माथुर ने कई सवाल खड़े कर दिये है। 

भाजपा नेता ओम माथुर ने सवाल करते हुए कहा कि कल विधानसभा चुनाव को लेकर बनी कांग्रेस की पॉलिटिक्स अफेयर्स कमेटी की बैठक में गहलोत ने जिस तरह की भाषा में अपने सहयोगियों और विधायकों को झाड़ा, उससे यह जाहिर हो रहा है, मानो गहलोत को सत्ता जाने का डर अभी से सताने लगा है। जिन रघुवीर मीणा,नीरज डांगी, प्रताप सिंह खाचरियावास और रघु शर्मा पर वह बरसे, वो  गहलोत के ही करीबी माने जाते रहे हैं। हां, खाचरियावास और शर्मा अपनी सहूलियत से खेमा बदलते जरूर रहे हैं,लेकिन फिर भी उन्होंने अशोक गहलोत से कभी खुली अदावत नहीं की। ऐसे में इन पर गुस्सा उतारना मुख्यमंत्री का फर्स्टटेशन ही कहा जाएगा। जिन उठाए गए मुद्दों पर गहलोत हंसकर अपनी बात कह सकते थे, उन पर तंज कसकर वो अपने राजनीतिक विरोधियों की तादाद में बढ़ोतरी ही करेंगे। भले ही चुनाव तक यह लोग खामोश रहे, लेकिन अपनी सार्वजनिक तौहीन कोई भी विधायक-मंत्री बर्दाश्त नहीं कर सकता है और मौका मिलने पर राजनीति में इसका बदला जरूर लेता है। कहते हैं कि राजनीति में तो सबसे बड़ा धोखा वो ही देता है जो आपके सबसे करीब होता है। 

माथुर ने कहा महत्वपूर्ण बात यह है कि इनमें से किसी ने भी गलत बात नहीं की थी, लेकिन जवाब सभी को गलत अंदाज में मिला। ऐसा लगता है इन सब की टिप्पणियों को गहलोत ने व्यक्तिगत ले लिया और शायद यह भी मान लिया कि ये सभी उनकी समझ और राजनीतिक अनुभव को चुनौती दे रहे हैं। जाहिर है चुनाव के वक्त जातिगत जनगणना कांग्रेस को राजस्थान में नुकसान पहुंचा सकती है और रघु शर्मा ने यही आशंका जताई थी। लेकिन गहलोत ने उन्हें ये कहकर तल्खी से जवाब दिया कि, तुम तो नेशनल लीडर हो सीधे राहुल गांधी से बात क्यों नहीं करते। कर्नाटक में राहुल गांधी ने ही कहा था कि जातिगत जनगणना कांग्रेस स्टैंड है। गहलोत राहुल के नाम का ताना मारने की वजह सिर्फ यह भी कह सकते थे कि क्योंकि जातिगत गणना पार्टी का स्टैंड इसलिए राजस्थान में भी कराई जाएगी, बात खत्म हो जाती। आखिर शर्मा कोई मामूली नेता नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के गृह राज्य गुजरात के चुनाव प्रभारी रहे थे। यह बात अलग है कि वह कांग्रेस को वहां बुरी तरह निपटा कर आए थे। राजस्थान के सबसे अमीर कांग्रेसी नेताओं में वो शुमार है और जब गहलोत और पायलट में सीएम पद को लेकर बगावत और विधायकों की भगदड़ का दौर चल रहा था, तब वह खुद को मुख्यमंत्री का दावेदार भी समझने लगे थे। 

यह ठीक है कि रघु शर्मा का इस बार केकड़ी से वापस चुनाव जीतना बहुत मुश्किल है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि गहलोत उन्हें इस तरह बेइज्जत कर दें। रघु शर्मा की राजनीतिक चतुराई और मैनेजमेंट को आप इस तरह समझ सकते हैं कि वह भिनाय से विधानसभा के लगातार तीन चुनाव हारने और जयपुर से सांसद का चुनाव हारने के बाद पांचवीं बार में 2013 में पहली बार केकड़ी के विधायक बने थे। बताइए इतने चुनाव हारने के बाद किसे राजनीति में आगे बढ़ने का मौका मिलता है। 

इसी तरह खाचरियावास का यह मुद्दा उठाना भी गलत नहीं था कि हमें भाजपा के आरोपों पर आक्रामक होने की जरूरत है। भाजपा ने नहीं सहेगा राजस्थान अभियान चलाकर कांग्रेस को घेरना शुरू कर दिया है और सोशल मीडिया पर भी वह आक्रामक मुद्रा में है। ऐसे में कांग्रेस रक्षात्मक मुद्रा में क्यों रहे? लेकिन गहलोत ने खाचरियावास को ही उनकी व्यक्तिगत आक्रामकता और बोलते समय ट्रैक से भटक जाने का ताना मारते हुए अपरोक्ष रूप से अनुशासनहीन करार दे दिया।

उन्होंने कहा कि ये तो ऐसी वेणुगोपाल है, जो अनुशासन के मामले में कार्रवाई में वक्त लगा देते हैं। अगर इनकी जगह मैं होता तो कार्रवाई में देर नहीं करता। खाचरियावास ने ऐसे कई मुद्दों पर बयान दिए हैं, जो सरकार को परेशानी में डालने वाले रहे हैं। उन्होंने जयपुर में स्मार्ट सिटी के कामों की धीमी गति को लेकर सरकार में नंबर दो माने जाने वाले एवं गहलोत के विश्वस्त शांति धारीवाल पर भी यह कहते निशान साधा था कि वो भाजपा के कार्यकर्ता हो गए हैं। कांग्रेस को हराना चाहते हैं।  यानी अगर गहलोत का बस चलता तो क्या वह खाचरियावास को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा देते। पूर्व सांसद रघुवीर मीणा ने भी क्या गलत कहा था जब मानगढ़ आदिवासी इलाका है, तो वहां ओबीसी आरक्षण की घोषणा किस राजनीति नजरिए से उचित थी। आदिवासियों के बीच में उनके हित की बात करते तो ज्यादा उचित होता। आदिवासी इस बात से नाराज है कि हमारा अधिकार दूसरों को दिया जा रहा है, इससे पार्टी को नुकसान होगा। लेकिन इसे गहलोत ने व्यक्तिगत हमला मानते हुए मीणा खरी-खरी सुनाते हुए कहा कि मुख्यमंत्री हूं, कौन सी बात कहां रखनी है, मैं जानता हूं। राज्यसभा सांसद नीरज डांगी तो गहलोत का ताना सुनकर रो ही पड़े। किसी नेता की इससे बड़ी बेइज्जती क्या होगी कि उसे यह कहा जाए कि विधानसभा के लिए तीन मौके दिए। लेकिन हार गए, तो पार्टी ने राज्यसभा सांसद बना दिया। कम से कम एक सीट जिता पाने की जिम्मेदारी तो लो। साले के लिए टिकट मांगना छोडो। डांगी को राज्यसभा सांसद गहलोत ने ही तो बनवाया था। जो तीन बार चुनाव हार चुका हो, ऐसे बिना जनाधार की नेता को राज्यसभा भेजने की जरूरत क्या थी। इससे तो लगता है कि आप मुख्यमंत्री के करीबी हो, तो कितने भी चुनाव हार जाओ, आपका राजनीतिक भविष्य बर्बाद नहीं होगा। भले इसके लिए दूसरे नेताओं की बलि चढ़ा दी जाए।

गहलोत की राजनीति को लंबे समय से देखने और समझने वाले प्रेक्षकों का मानना है कि 2020 में जब से सचिन पायलट ने बगावत की थी, तब से अशोक गहलोत का व्यवहार एकदम से बदल गया है। उनके मधुर और सौम्य व्यवहार पर गुस्से और चिड़चिड़ापन ने कब्जा कर लिया है। उनकी भाषा और शब्दों का चयन भी निरंतर गिरता रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि विधानसभा चुनाव में गहलोत अपनी मर्जी से टिकट वितरण नहीं कर पाएंगे, इसलिए भी वो परेशान हैं। इस पर नजर रखने के लिए मधुसूदन शास्त्री और गौरव गोगोई जैसे नेताओं को राजस्थान में लगाया गया है, यह दोनों राहुल गांधी के करीबी है और वेणुगोपाल भी। ऐसे हुए भले ही गहलोत मुख्यमंत्री का पद बचाने में कामयाब रहे हो, लेकिन टिकट वितरण में उनके अकेले की चलने वाली नहीं है। वेणुगोपाल की मौजूदगी में सीएम ने अपने कटु वचनों से यह जाहिर कर दिया कि उन्हें अपने काम में किसी के दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं है। लेकिन वह तो एक बार उन्हें सहनी ही होगी। बैठक में सचिन पायलट की खामोशी ने उनके नंबर कांग्रेस आलाकमान नजरों में और बढ़ा दिया होंगे। 

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