Fever:- "बुखार:— एक प्रकृति प्रदत्त सुरक्षाचक्र है"

Fever:- "बुखार:— एक प्रकृति प्रदत्त सुरक्षाचक्र है" 

 

छोटा अखबार।

प्रतिष्ठित डॉक्टरों की सलाह-लेकिन कुछ जिम्मेदारी, कुछ दिक्कतें डॉक्टरों और मरीजों की भी पिछले कुछ दिनों दो प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक अखबारों में दो प्रतिष्टित चिकित्सको के लेख पढ़ें, जिन से मुझे वर्तमानं परिस्थितियों में डाक्टर, बीमार, जांच और इलाज पर आम लोगों की कुछ प्रतिक्रियाएं रं आप तक पहुंचाने का साहस हुआ। मैं जिन लेखों की बात कर रहा हूँ उनका शीर्षक है--"बुखार: एक प्रकृति प्रदत्त सुरक्षाचक्र है" तथा "बेअसर होती दवाएं एक नया संकट खड़ा कर सकती है"।

 


इन लेखों में एनटीबियोटिक दवायों के न्यूनतम उपयोग की सलाह दी है और इनके ज्यादा उपयोग से होने वाले नुकशान की ओर ध्यान आकृष्ठ किया है। एक लेख की जिस बात पर मुझे यह पंक्तियां लिखने के लिए प्रेरित किया वे है" बुखार उताराने की दवा लिवर को थोड़ा बहुत नुकसान हर हालत में पहुंचती है। इसलिए जहां तक सम्भव हो उनका न्यूनतम उपयोग कीजिये। आपका चिकित्सक यदि एंटीबायोटिक का सुझाव देता है तो उसका औचित्य पूछिये। याद रखिये कि जब आप चिकित्सक को परामर्श शुल्क देते है तो फिर परामर्श लेने से हिचकिचाते क्यो हैं?--शरीर प्रकृति द्वारा निर्मित है तो प्रकृति के अनुसार ही जीना है बुखार नहीं बुखार के कारण का उपचार करना है। दूसरे लेख की मुख्य बात यह है कि एंटीबायोटिक दवाओं के ज्यादा, अनावश्यक उपयोग से रोग विषाणुओं में उनसे अपने बचाव के लिए स्वयं में कुछ परिवर्तन कर लेते है और दवा उन पर बेअसर हो जाती है। है। दूसरी, तीसरी व इस से भी आगे की नई नई दवाई आएंगी और रोग विषाणु भी वैसे ही बचाव के तरीके ढूंढेगे और दवाएं बेअसर होती जाएगी।

सर्व प्रथम तो यह डॉक्टर का दायित्व है कि जरूरी से अधिक एंटीबायोटिक या अन्य दवाइयां-जांचे लिखे ही क्यों? किन्तु केवल इतना कह देने से समस्या का निदान नहीं होता। बहुत सी बार मरीज स्वयं पुरानी नुस्खा पर्ची पर दवाई लेता रहता है। अधिकांशतः केमिस्ट भी पर्ची चालू है या पुरानी इस बात को नजरअंदाज करते हैं। सरकारी आदेश से यह सुनिश्चित किया जाना अत्यंत कठिन है कि केमिस्ट चालू नुस्खे पर ही दवा दें, यद्यपि नैतिक दृष्टि से यह उनका दायित्व है। डाक्टर समुदाय की आलोचना नहीं किन्तु कई बार सुनने में आता है कि कुछ लोग अनावश्यक अधिक दवाई-जांचे लिखते हैं। एक ही व्याधि के लिए आवश्यकता से अधिक व एक साथ कई दवाइयां इसलिए लिखते है ताकि मरीज जल्दी ठीक हो जाए। इस से डॉक्टर का फौरी प्रचार-प्रसार हो जाता है। ज्यादा मरीज उनसे इलाज कराने को आकर्षित होते हैं। इस प्रकार की प्रवर्ती ग्रामीण इलाकों, छोटे शहरों में कार्यरत परामर्श देने वालों में व गरीब व निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों के बीमार व्यक्तियों में ज्यादा देखी जाती। गरीब, अल्पाय व दैनिक आमदनी भोगियों की अपनी समस्या है। उनके लिए बार बार डॉक्टर के पास जाना, बीमार होना धन उपलब्धता व रोजी रोटी की बहुत बड़ी समस्या उतपन्न कर देता है।वे चाहते है तुरन्त स्वास्थ्य लाभ और रोजगारी कर घर चलाएं। इसलिए अपनी सुविधा या मजबूरी के चलते पुराने नुस्खों पर दवाई लेते रहते हैं। डॉक्टरों की नैतिकता, प्रतिबद्धता की भी कई अत्यंत उम्मदा/उत्कृष्ट कहानियां भी जन सामान्य से सुनने को मिलती है। यहां बिना नाम लिखे में कुछ डॉक्टर्स की नैतिकता व पेशे के स्टैंडर्ड्स के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के बारे में लिखना चाहता हूं।

सर्व प्रथम तो यह डॉक्टर का दायित्व है कि जरूरी से अधिक एंटीबायोटिक या अन्य दवाइयां-जांचे लिखे ही क्यों? किन्तु केवल इतना कह देने से समस्या का निदान नहीं होता। बहुत सी बार मरीज स्वयं पुरानी नुस्खा पर्ची पर दवाई लेता रहता है। + अधिकांशतः केमिस्ट भी पर्ची चालू है या पुरानी इस बात को नजरअंदाज करते हैं। सरकारी आदेश से यह सुनिश्चित किया जाना अत्यंत कठिन है कि केमिस्ट चालू नुस्खे पर ही दवा दें, यद्यपि नैतिक दृष्टि से यह उनका दायित्व है।

एसएमएस अस्पताल के पूर्व अधीक्षक, अत्यंत सम्माननित व वरिष्ठ डॉक्टर रिटायरमेंट के बाद दुर्लभजी अस्पताल में सेवाएं दे रहे थे। एक महिला मरीज उनके पास नुस्खों के पर्चे व दवाओं का ढेर लेकर आई। कहने लगी न जाने कितने डॉक्टरों को दिखा लिया और कितनी दवाई खा ली किन्तु पेट की तकलीफ ठीक ही नहीं हो रही। डॉक्टर में बड़े ध्यान से धैर्यपूर्वक उसे सुना और जो कहा वह हूबहू लिख रहा हूँ--ठीक है माता जी, यह दवाइयां बंद करदो और यह एक दवाई 5-7 दिन लेना और फिर भी कभी ऐसा ही हो तो खाने के आधा पौण घण्टे पहले ले लिया करो, आराम आजाएगा। शायद, उस समय 5 रुपए की दवा नें उसे राहत दे दी। ओर भी बहुत से ऐसे

डाक्टर होंगे किन्तु शायद वे डॉक्टर्स की कुल संख्या की तुलना में कम ही होंगे। बहुत पहले, करीब 40 साल पहले कोटा में एक बच्चों के डॉक्टर थे। उनका उसूल था कि अस्पताल समय खत्म होने पर चाहे 100 आदमी लाइन में हों, जब तक लास्ट मरीज को नहीं देख लेते थे, सीट नही छोड़ते थे। दो जगह घर पर देखते थे, शायद 5 रुपये फीस, उसमें भी कोई अत्यंत गरीब मजदूर नहीं दे सके तो नहीं लेते थे और सेम्पल की दवाइयां ऐसे लोगों को देते थे। जयपुर के एक डॉक्टर ने एक मरीज को कुछ जांच करने के लिए पर्ची लिखी। मरीज पास के जांच सेंटर में जांच कराने पहुंचा। उस से पहले व्यक्ति से, जांच केंद्र वाले ने एक राशि वसूल की और इस व्यक्ति से उससे काफी कम राशि ली। उस व्यक्ति नें पूछ लिया, भाई इतना अंतर क्यों? उसका जवाब था, आप जिस डॉक्टर को दिखा कर आये हो वे हमारे से कमीशन नहीं लेते, सो उतना कम कर देते है। सम्बंधित डॉक्टर भी एसएमएस अस्पताल के अधीक्षक पद से रिटायर हुए है। जेनेरिक दवाइयों को लेकर भी कई भ्रांतियां, समस्याएं हैं। सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि इनके नाम बहुत बड़े व आसानी से मरीज और शायद, डॉक्टर भी, याद रख सके ऐसे नहीं।

उदाहरण के लिए पेट में एसिडिटी एक सामान्य समस्या है और कई संक्षिप्त नाम यथा टोप्सिड आदि लेने का परामर्श डॉक्टर देते हैं। इसका जेनेरिक नाम है--Pantoprazole gastro resistant and Compartidone prolonged release capsules. आदि। इसी प्रकार के नाम अन्य छोटी छोटी शारीरिक व्याधियों की दवाइयों के है। जेनेरिक दवाइयों के बड़े नाम होंने के कारण निजी क्षेत्र में काम करने वाले अधिकांश डॉक्टर्स ब्रांडेड नाम से ही दवाइयां लिखते है। अपने घरों पर परामर्श देने वाले सरकारी डॉक्टर्स भी यही करते हैं।

इसके लिए सरकार के स्तर से रक्तचाप, कोलेस्ट्रॉल, बुखार, जुकाम, विभिन्न प्रकार के वाइरल बुखार, एंजाइना व हृदय सम्बन्धी अन्य बीमारियों की व अन्य इसी प्रकार की सामान्य बीमारियों के लिए छोटे ब आसानी से याद रहने वाले नाम दिए जाएं। ऐसा सॉफ्टवेयर तालिका तैयार हो जिस से जनऔषधि स्टोर्स, सरकारी औषधि वितरण केंद्र से जो औषधि जेनेरिक नाम से बेची-इश्यू की जाए, उसके बिल में साथ यह संक्षिप्त नाम ऑटोमेटिक अंकित हो जाए। इस से मरीज आसानी से ध्यान रख सकेगा कि कोन सी दवाई किस बीमारी के लिए है।

जेनेरिक दवाइयों की गुणवत्ता (क्वालिटी) पर आम जन का विश्वास भ्रांतियों के कारण अथवा कुछ कुछ सही कारणों से, अभी तक जमा नहीं। एक सरकारी डॉक्टर साहब से लेखक में पुछ लिया की जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता के सम्बंध में उनका क्या विचार है? उन्होंने काउंटर प्रश्न कर लिया कि मेरी इस सम्बंध में क्या राय है? मेरे पास एक मरीज का बताया अनुभव था, वैसा उन्हें बता दिया कि उसने उच्च रक्तचाप नियंत्रण के लिए जनऔषधि स्टोर से जेनेरिक दवाई ली किन्तु उसे वापस सम्बंधित ब्रांडेड दवा लेनी पड़ी। डॉक्टर महोदय ने बड़ी सधी प्रतिक्रिया दी कि दवाओं की कीमत तो कम होनी ही चाहिए और जेनेरिक दवाइयों के जरिये यह किया जा रहा है। बहुत से मरीज लाभान्वित भी हो रहे है। यह भी सही है कि कई लोग गुणवत्ता के सम्बंध में आशंका तो व्यक्त करते हैं। आगे उनका कहना था कि क्वालिटी सुनिश्चित करने के लिए सरकार में ड्रग विभाग के अधिकारियों के लिए निरीक्षण, बनती दवाओं की क्वालिटी जांच व बाजार में आई दवाओं के औचक नमूने लेना व गुणवत्ता जांचना आदि कई प्रावधान कर रखे है किन्तु अंततोगत्वा यह सब करने वालों में से कुछ लोग, विभिन्न प्रलोभनों या कर्तव्यहीनता के चलते कहीं न कहीं शिथिलता बरतते होंगे और खराब क्वालिटी औषधियां बाजार में आ जाती है। अंत में फीस देकर परामर्श के लेना व मरीज अधिकारपूर्वक सारी जानकर लेने की राय पर राय सोलह आने सही किन्तु हर मरीज डॉक्टर से लगातार तो पुछ नहीं सकता और अधिकांशतः एक जवाब होता है, बाहर सिस्टर या कम्पाउंडर या केमिस्ट सब समझा देंगे। क्या हम यह आशा कर सकते है, कि एक गरीब, अल्पशिक्षित, अल्पाय वाला व्यक्ति डॉक्टर जिसके क्लिनिक पर बाहर 100-50 मरीजों की लाइन लगी हो, वह बार-बार अपनी शंका समाधान की बात पूछने का साहस करेगा? यह काम तो स्वयं डॉक्टर का दायित्वबोध ही करेगा कि वह बोल कर या लिख कर दवाइयों-जांचों की आवश्यकता को विस्तार से मरीज को समझाये।

-महावीर सिंह, पूर्व आईएएस

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